नासेहा कर न इसे सी के पशेमाँ मुझ को कितने ही चाक अभी करने हैं गरेबाँ मुझ को वहशत-ए-दिल कोई शहरों में समा सकती है काश ले जाए जुनूँ सू-ए-बयाबाँ मुझ को अहल-ए-मस्जिद ने जो काफ़िर मुझे समझा तो क्या साकिन-ए-दैर तो जाने हैं मुसलमाँ मुझ को मैं सर-ए-मू नहीं जूँ ज़ुल्फ़ किसी से शाकी बादा-दस्ती ने किया मेरी परेशाँ मुझ को सच कहो किस से है ये नैन खिलाने का शौक़ भेजते हो जो पए-ए-सुर्मा-सफ़ाहाँ मुझ को याँ तलक ख़ुश हूँ अमारिद से कि ऐ रब्ब-ए-करीम काश दे हूर के बदले भी तू ग़िल्माँ मुझ को मुफ़्त तक तो कोई 'क़ाएम' नहीं लेने का ये जिंस कह फ़लक से करे कुछ और भी अर्ज़ां मुझ को