नशीली छाँव में बीते हुए ज़मानों को लगा दो आग अजल के निगार-ख़ानों को बता रहे हैं जबीन-ए-हयात के तेवर पनाह मिल नहीं सकती अब आस्तानों को दिए जलाओ कि इंसानियत ने तोड़ दिया जहान-ए-ज़र के रू-पहले तिलिस्म-ख़ानों को हर एक गाम पे मशअ'ल दिखा रही है हयात सितम की आँच में निखरे हुए ज़मानों को हज़ार दार-ओ-रसन डगमगा नहीं सकते अजल की गोद में खेले हुए जवानों को बहुत क़रीब है वो दौर ख़ुश-गवार कि जब निगार-ए-अम्न सजाएगी कार-ख़ानों को ख़ुद आगे बढ़ के क़दम चूमती है मंज़िल-ए-शौक़ ये किस ने राह दिखाई है कारवानों को