नसीम-ए-सुब्ह गुलशन में गुलों से खेलती होगी किसी की आख़िरी हिचकी किसी की दिल-लगी होगी तुझे दानिस्ता महफ़िल में जो देखा हो तो मुजरिम हूँ नज़र आख़िर नज़र है बे-इरादा उठ गई होगी मज़ा आ जाएगा महशर में कुछ सुनने सुनाने का ज़बाँ होगी हमारी और कहानी आप की होगी यही आलम रहा पर्दा-नशीनी का तो ज़ाहिर है ख़ुदाई आप से होगी न हम से बंदगी होगी तअ'ज्जुब क्या लगी जो आग ऐ 'सीमाब' सीने में हज़ारों दिल में अंगारे भरे थे लग गई होगी