नौ-गिरफ़्तार-ए-मोहब्बत कभी आज़ाद न हो क़ैद में क़ैद रहे क़ैद की मीआ'द न हो मैं तो ख़ामोश रहूँ हिज्र में डर है लेकिन दर्द उठ कर कहीं आमादा-ए-फ़रियाद न हो तुम में पिन्हाँ हैं मोहब्बत के हज़ारों जल्वे ऐ मिरी ख़ाक के ज़र्रो कहीं बरबाद न हो कुछ हैं बिखरे हुए पर कुंज-ए-क़फ़स के बाहर ख़ौफ़ है और भी रुस्वा कहीं सय्याद न हो फूट कर किस के ये रोने की सदा आती है दर्द-ए-उल्फ़त कहीं मेरा दिल-ए-नाशाद न हो दिल की ईज़ा-तलबी पूछ लूँ क्या कहती है ठहरो ठहरो अभी दम-भर कोई बेदाद न हो 'शौक़' कर दूँ जो बयाँ काविश-ए-ग़म की हालत अपना क़िस्सा भी कम-अज़ क़िस्सा-ए-फ़रहाद न हो