नाव काग़ज़ की सही कुछ तो नज़र से गुज़रे उस से पहले कि ये पानी मिरे सर से गुज़रे फिर समाअत को अता कर जरस-ए-गुल की सदा क़ाफ़िला फिर कोई इस राहगुज़र से गुज़रे कोई दस्तक न सदा कोई तमन्ना न तलब हम कि दरवेश थे यूँ भी तिरे दर से गुज़रे ग़ैरत-ए-इश्क़ तो कहती है कि अब आँख न खोल इस के ब'अद अब न कोई और इधर से गुज़रे मैं तो चाहूँ वो सर-ए-दश्त ठहर ही जाए पर वो सावन की घटा जैसा है बरसे गुज़रे हब्स की रुत में कोई ताज़ा हवा का झोंका बाद-ओ-बाराँ के ख़ुदा मेरे भी घर से गुज़रे मुझ को महफ़ूज़ रखा है मिरे छोटे क़द ने जितने पत्थर इधर आए मिरे सर से गुज़रे