नवाह-ए-जाँ में किसी के उतरना चाहा था ये जुर्म मैं ने बस इक बार करना चाहा था जो बुत बनाऊँगा तेरा तो हाथ होंगे क़लम ये जानते हुए जुर्माना भरना चाहा था बग़ैर उस के भी अब देखिए मैं ज़िंदा हूँ वो जिस के साथ कभी मैं ने मरना चाहा था शब-ए-फ़िराक़ अजल की थी आरज़ू मुझ को ये रोज़ रोज़ तो मैं ने न मरना चाहा था कशीद इत्र किया जा रहा है अब मुझ से कि मुश्क बन के फ़ज़ा में बिखरना चाहा था उस एक बात पे नाराज़ हैं सभी सूरज कि मैं ने उन सा उफ़ुक़ पर उभरना चाहा था लगा रहा है जो शर्तें मिरी उड़ानों पर मिरे परों को उसी ने कतरना चाहा था उसी तरफ़ है ज़माना भी आज महव-ए-सफ़र 'फ़राग़' मैं ने जिधर से गुज़रना चाहा था