नया लहजा ग़ज़ल का मिस्रा-ए-सानी में रक्खा है हुआ को मुट्ठियों में आग को पानी में रक्खा है न जाने क्या समझ कर चख लिया था दाना-ए-गंदुम अभी इक भूल ने अब तक पशेमानी में रक्खा है वतन से दूर हूँ में रिज़्क़ की ख़ातिर मिरे मौला मगर बस्ती को तेरी ही निगहबानी में रक्खा है सफ़र में भी ड्रामाई अनासिर काम आए हैं ज़बाँ की चाशनी से सब को हैरानी में रक्खा है ग़ज़ल कहने का मौसम 'क़ासमी' अब हो गया रुख़्सत सुकून-ए-क़ल्ब तो उस की सना-ख़्वानी में रक्खा है मोहज़्ज़ब शहर के लम्बे सफ़र से लूट आया हूँ सलीक़ा ज़िंदगी का घर की वीरानी में रक्खा है