नए जज़ीरों की हम को भी चाहतें थीं बहुत हमारी राह में लेकिन रिवायतें थीं बहुत कहीं भी आग लगे उस का नाम आता है उसे चराग़ जलाने की आदतें थीं बहुत किसी का लहजा यक़ीनन फ़रेब लगता था मगर फ़रेब के पीछे सदाक़तें थीं बहुत अँधेरे ज़ख़्म मसाइल धुआँ लहू आँसू गँवाते हम भी कहाँ तक विरासतें थीं बहुत वो जिस की गुफ़्तुगू फूलों का इस्तिआरा थी ख़मोशियों में भी उस की फ़साहतें थीं बहुत उतारा जाता था सदक़ा हमारी जान का भी हमारे दम से भी मंसूब चाहतें थीं बहुत बहुत समझते हैं थोड़े लिखे को हम 'शादाब' हमारे वास्ते इक दो शिकायतें थीं बहुत