नए उस्लूब में ज़िंदा हुए हैं तभी तो हर्फ़-ए-आइंदा हुए हैं तुलू-ए-सुब्ह की उम्मीद कम थी दुआ-ए-शब से ताबिंदा हुए हैं न काम आया जहाँ अर्ज़-ए-हुनर भी लब-ए-इज़हार शर्मिंदा हुए हैं बदन में जीते जी जो मर गए थे वो अपनी रूह में ज़िंदा हुए हैं हमारी शो'लगी सब से जुदा है बुझे हैं हम तो सोज़िंदा हुए हैं मिटा सकता नहीं जिन को ज़माना कुछ ऐसे नक़्श-ए-पाइंदा हुए हैं हमें सूद-ओ-ज़ियाँ से क्या 'सुख़न' हम न याबिंदा न गीरिन्दा हुए हैं