नज़र को वक़्फ़-ए-ग़म-ए-इंतिज़ार कर न सके ख़ुद अपनी ज़ात पे हम ए'तिबार कर न सके नज़र उठी तो गुलों तक ही रह गई महदूद नज़र को माइल-ए-रंग-ए-बहार कर न सके फ़रेब-ए-हुस्न से इस को न क्यों करूँ ता'बीर ज़बाँ से कहते रहे दिल से प्यार कर न सके क़फ़स में आया तो मौसम बहार का लेकिन निगाह-ए-शौक़ को वक़्फ़-ए-बहार कर न सके हरीम-ए-नाज़ के पर्दे उठे मगर 'पैकर' जुनूँ के मारे ही ख़ुद इंतिज़ार कर न सके