ये का'बा ये काशी हरम देखते हैं कि अपना ख़ुदा तुझ में हम देखते हैं ज़माने के सब ख़ूबसूरत नज़ारे तुम्हारी ही आँखों से हम देखते हैं नहीं कुछ भरोसा हमें अगले पल का नज़र भर के तुम को सनम देखते हैं तिरी इंतिज़ारी से उक्ता गया दिल तिरी राह मुद्दत से हम देखते हैं यही नस्ल-ए-नौ का तरीक़ा है लोगों अलग ज़ाविए से क़लम देखते हैं हमारी ग़ज़ल हो गई कहकशाँ न जहाँ तक सितारों को हम देखते हैं ग़ज़ल ले रही है नई एक करवट ये 'दुष्यंत' 'ग़ालिब' अदम देखते है