नेकियों से कल मेरी तन्हाइयाँ कहने लगीं दूर तक जो बन गई हैं खाइयाँ कहने लगीं फ़ैसला भी हो नहीं पाया मुक़द्दर से यहाँ धूप में जलती हुई परछाइयाँ कहने लगीं चाक दिल अपना रफ़ू करते रहे जो टूट कर हस्ती-ए-गुल बज़्म की रानाइयाँ कहने लगीं पाँव चलते ही रहे और मंज़िलें बढ़ती गईं मश्रिक-ओ-मग़रिब से मुँह की झाइयाँ कहने लगीं याँ हिजाबाना फ़रेबी ही बसीरत हो गए ज़ाहिदों से मसअला सच्चाइयाँ कहने लगीं पढ़ लिया करते हमें जो देख कर के आइना वो नज़र ही ख़ुद मिरी रुस्वाइयाँ कहने लगीं मुफ़्लिसी ख़ुद्दार होना सच कहाँ तक है भला भूक में बिकती हुई अंगड़ाइयाँ कहने लगीं माँग के सिंदूर उजड़े पालकी जलती रही क्यों हुए हंगामे ये शहनाइयाँ कहने लगीं