नीची नज़रों के वार आने लगे लो बस अब जान-ओ-दिल ठिकाने लगे मेरी नज़रों ने क्या कहा यारब क्यूँ वो शरमा के मुस्कुराने लगे मस्लहत तर्क-ए-जौर था चंदे फिर उसी हथकंडों पे आने लगे जल्वा-ए-यार ने किया बे-ख़ुद हम तो आते ही उन के जाने लगे सब का काबा है मंज़िल-ए-मक़्सूद हम तो आगे क़दम बढ़ाने लगे क्या कहीं आमद-ए-बहार हुई क्यूँ गरेबाँ पे हाथ जाने लगे गर हक़ीक़त-निगर हो चश्म तो वो जल्वा हर रंग में दिखाने लगे हम को रब्त-ए-गुज़िश्ता याद आए वो जो बन-ठन के घर से जाने लगे बस यही ग़ायत-ए-तसव्वुर है हिज्र में लुत्फ़-ए-वस्ल आने लगे उस सरापा बहार के जल्वे रंग कुछ और ही न खाने लगे क्यूँ कि फ़ुर्सत अदू से तुम को मिली जो तसव्वुर में मेरे आने लगे बे-ग़िज़ा के तो रह नहीं सकते न मिला कुछ तो ज़हर खाने लगे बात बनती नज़र नहीं आती अब वो बातें बहुत बनाने लगे आज 'मजरूह' ज़ब्त कर न सका क्या करे जब कि जान जाने लगे