निगाह-ए-हुस्न ने जादू जगाए हैं क्या क्या फ़रेब अहल-ए-मोहब्बत ने खाए हैं क्या क्या किसी ने वा'दा-ए-फ़र्दा का आसरा दे कर हसीन ख़्वाब-ए-तमन्ना दिखाए हैं क्या क्या ज़माना जिन को समझता है दाग़-ए-महरूमी मिरी हयात में वो रंग लाए हैं क्या क्या न हो सकी कभी तकमील-ए-आरज़ू फिर भी बिसात-ए-ज़ेहन पे ख़ाके बनाए हैं क्या क्या मता-ए-ग़म किसे मालूम है कि हम 'अहमद' न जाने पहलू-ए-दिल में छुपाए हैं क्या क्या