निगाह-ए-हुस्न-ए-मुजस्सम अदा को छूते ही गँवाए होश भी उस दिलरुबा को छूते ही तमाम फूल महकने लगे हैं खिल खिल कर चमन में शोख़ी-ए-बाद-ए-सबा को छूते ही मशाम-ए-जाँ में अजब है सुरूर का आलम तसव्वुरात में ज़ुल्फ़-ए-दोता को छूते ही निगाह-ए-शौक़ की सब उँगलियाँ सुलग उट्ठीं गुलाब जिस्म की रंगीं क़बा को छूते ही नज़र को हेच नज़र आए सब हसीं मंज़र बस इक शुआ-ए-रुख़-ए-जाँ-फ़ज़ा को छूते ही जो आँसुओं से हुई बा-वज़ू अकेले में दर-ए-क़ुबूल खुला उस दुआ को छूते ही नहाईं शिद्दत-ए-एहसास के उजाले में समाअतें मिरे सोज़-ए-नवा को छूते ही हिसार-ए-ज़ब्त जो टूटा तो आँख भर आई दयार-ए-ग़ैर में इक आश्ना को छूते ही लहू में डूब के काँटे बने चराग़ 'ज़फ़र' रह-ए-वफ़ा में हम आशुफ़्ता-पा को छूते ही