निगाह-ए-लुत्फ़ क्या कम हो गई है मोहब्बत और मोहकम हो गई है तबीअत कुश्ता-ए-ग़म हो गई है चराग़-ए-बज़्म-ए-मातम हो गई है मआल-ए-ज़ब्त-ए-पैहम हो गई है मसर्रत हासिल-ए-ग़म हो गई है तमन्ना जब बढ़ी है अपनी हद से तो मायूसी का आलम हो गई है न जाने क्यूँ अदावत ही अदावत है सिरिश्त-ए-इब्न-ए-आदम हो गई है है महव-ए-रक़्स हर बर्ग-ए-चमन पर बड़ी बेबाक शबनम हो गई है हँसी होंटों पर आते आते 'अख़्तर' पयाम-ए-गिर्या-ए-ग़म हो गई है