निगाह-ए-मेहर से देखो न ग़म-ज़दा दिल को बनाओ और न मुश्किल हमारी मुश्किल को ज़माना क़त्ल हुआ और वो रही प्यासी गिला है अबरू-ए-क़ातिल से तेग़-ए-क़ातिल को मिरे ख़याल ने ख़ल्वत को कर दिया महफ़िल तिरी निगाह ने ख़ल्वत बनाया महफ़िल को न जाने दिल का तुझे कुछ ख़याल है कि नहीं तिरा ख़याल तो वज्ह-ए-नशात है दिल को निशान-ए-मंज़िल-ए-मक़्सूद पा ही जाएगा वो रह-नवर्द कि मदफ़न बना दे मंज़िल को जिला दे बर्क़ जो हासिल से है यही हासिल कि ख़ौफ़-ए-बर्क़ से हासिल न हो सुकूँ दिल को कहाँ से आई ये हैरत निगाह-ए-'बेख़ुद' में कि उस को देख के सकता है अहल-ए-महफ़िल को