निगाहें फेर कर अपनी ख़ुदी से रहे इक उम्र ख़ुद में अजनबी से तअ'ल्लुक़ क्या मिरा ग़म और ख़ुशी से शिकायत ही नहीं हम को किसी से क़ज़ा के दर पे दस्तक देने वाला बहुत कुछ चाहता था ज़िंदगी से विसाल-ओ-हिज्र का एहसास कैसा सभी हम से मिले हैं अजनबी से ख़बर तुम को नहीं यारों कि मैं ने लिया है काम कितना बे-हिसी से न जाने किस से कहना चाहता हूँ वो बातें जो नहीं कहता किसी से है दिल में दफ़्न अश्कों का समुंदर बदन को आग लगती है नमी से अँधेरों से निभाना चाहता हूँ वो रिश्ता जो कभी था रौशनी से