निगाहों में सदा गीले बदन का ज़ाइक़ा रखना क़यामत-ख़ेज़ बारिश में न दरवाज़ा खुला रखना थकन वाजिब है उतनी टूटते लम्हों के साए में बुलंदी पर बहुत मुश्किल है अपना मर्तबा रखना हवा-ए-दश्त-ए-शोरीदा शजर को बरहना कर दे तू इन बिखरे हुए पत्तों पे अपना नक़्श-ए-पा रखना वो मौसम जब दरख़्तों को नई पोशाक मिल जाए हमारे वास्ते आँसू कोई खोया हुआ रखना हवा की शह पे 'रौनक़' काली बदलियाँ भागीं नहूसत है खुली छत पर भी अब सूखा घड़ा रखना