निगार-ए-मह-वश ओ महबूब-ए-लाला-रू की तरह कोई तो रात मिरे ख़्वाब-ए-आरज़ू की तरह चराग़-ए-शाम-ए-तमन्ना का रंग क्या कहिए लरज़ रहा है किसी हर्फ़-ए-आरज़ू की तरह शगुफ़्त-ए-गुल का तबस्सुम भी हर्फ़-ए-दिलकश है मगर कहाँ तिरे अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू की तरह बहल ही जाएगा दिल नींद आ ही जाएगी हवा तो दे कोई दामान-ए-मुश्क-बू की तरह ख़ुलूस-ए-इश्क़ हिरासाँ है अहल-ए-दुनिया से किसी ग़रीब के एहसास-ए-आबरू की तरह हमारे फ़न का हर इक नक़्श बे-सिला अब तक ख़मोश है किसी मासूम के लहू की तरह ख़िज़ाँ का मक़्तल-ए-हसरत भी दीदनी है 'शमीम' पड़े हैं फूल शहीदान-ए-सुर्ख़-रू की तरह