निज़ाम-ए-तबीअत से घबरा गया दिल तबीअत की अब बरहमी चाहता हूँ मिरी बे-क़रारी से ख़ुश होने वाले न ख़ुश कि मैं भी यही चाहता हूँ जफ़ा को भी तेरी जो शर्मिंदा कर दे वो मज़लूम मैं ज़िंदगी चाहता हूँ ग़ज़ब है ये एहसास वारस्तगी का कि तुझ से भी ख़ुद को बरी चाहता हूँ सर-ए-दार मंसूर को थी जो हासिल मैं 'हादी' वही ज़िंदगी चाहता हूँ