निकला हूँ शहर-ए-ख़्वाब से ऐसे अजीब हाल में ग़र्ब मिरे जुनूब में शर्क़ मिरे शुमाल में कोई कहीं से आए और मुझ से कहे कि ज़िंदगी तेरी तलाश में है दोस्त बैठा है किस ख़याल में ढूँडते फिर रहे हैं सब मेरी जगह मिरा सबब कोई हज़ार मील में कोई हज़ार साल में लफ़्ज़ों के इख़्तिसार से कम तो हुई सज़ा मिरी पहले कहानियों में था अब हूँ मैं इक मिसाल में मेज़ पे रोज़ सुब्ह-दम ताज़ा गुलाब देख कर लगता नहीं कि हो कोई मुझ सा मिरे अयाल में फूल कहाँ से आए थे और कहाँ चले गए वक़्त न था कि देखता पौदों की देख-भाल मैं कमरों में बिस्तरों के बीच कोई जगह नहीं बची ख़्वाब ही ख़्वाब हैं यहाँ आँखों के हस्पताल में गुर्ग-ओ-समंद ओ मूश-ओ-सग छाँट के एक एक रग फिरते हैं सब अलग अलग रहते हैं एक खाल में