निकले है चश्मा जो कोई जोश-ए-ज़नाँ पानी का याद वो है वो कसो चश्म की गिर्यानी का लुत्फ़ अगर ये है बुताँ संदल पेशानी का हुस्न क्या सुब्ह के फिर चेहरा-ए-नूरानी का कुफ़्र कुछ चाहिए इस्लाम की रौनक़ के लिए हुस्न ज़ुन्नार है तस्बीह-ए-सुलैमानी का दरहमी हाल की है सारे मिरे दीवाँ में सैर कर तू भी ये मजमूआ' परेशानी का जान घबराती है अंदोह से तन में क्या क्या तंग अहवाल है उस यूसुफ़-ए-ज़िंदानी का खेल लड़कों का समझते थे मोहब्बत के तईं है बड़ा हैफ़ हमें अपनी भी नादानी का वो भी जाने कि लहू रो के लिखा है मक्तूब हम ने सर नामा किया काग़ज़ अफ़्शानी का उस का मुँह देख रहा हूँ सो वही देखूँ हूँ नक़्श का सा है समाँ मेरी भी हैरानी का बुत-परस्ती को तो इस्लाम नहीं कहते हैं मो'तक़िद कौन है 'मीर' ऐसी मुसलमानी का