निकले हो किस बहार से तुम ज़र्द-पोश हो जिस की नवेद पहुँची है रंग-ए-बसंत को दी बर में अब लिबास-ए-बसंती को जैसे जा ऐसे ही तुम हमारे भी सीना से आ लगो गर हम नशे में बोसा कहें दो तो लुत्फ़ से तुम पास मुँह को ला के ये हँस कर कहो कि लो बैठो चमन में नर्गिस ओ सद-बर्ग की तरफ़ नज़्ज़ारा कर के ऐश-ओ-मसर्रत की दाद दो सुन कर बसंत मुतरिब-ए-ज़र्रीं-लिबास से भर भर के जाम फिर मय-ए-गुल-रंग के पियो कुछ क़ुमरियों के नग़्मा को दो सामेआ में राह कुछ बुलबुलों का ज़मज़मा-ए-दिल-कुशा सुनो मतलब है ये 'नज़ीर' का यूँ देख कर बसंत हो तुम भी शाद दिल को हमारे भी ख़ुश करो