निकली जो आज तक न किसी की ज़बान से टकरा रही है बात वही मेरे कान से सोता रहा मैं ख़ौफ़ की चादर लपेट कर आसेब चीख़ते रहे ख़ाली मकान से अक्सर मैं एक ज़हर बुझे तीर की तरह निकला हूँ हादसात की तिरछी कमान से फैला हुआ है हद्द-ए-नज़र तक सुकूत-ए-मर्ग आवाज़ दे रहा है कोई आसमान से तन्हाइयों को सौंप के तारीकियों का ज़हर रातों को भाग आए हम अपने मकान से मुमकिन है ख़ूब खुल के हो गुफ़्त-ओ-शुनीद आज वो भी ख़फ़ा है हम भी हैं कुछ बद-गुमान से ऐ 'कैफ़' जिन को बुग़्ज़ नई शायरी से है वो भी तिरे कलाम को पढ़ते हैं ध्यान से