निखारती रही यलग़ार-ए-संग क्या करते हम अपना हल्क़ा-ए-अहबाब तंग क्या करते उसे था शौक़ बहुत आसमान छूने का ये कट गई थी हमारी पतंग क्या करते ये दौर दे गया तमग़ात चापलूसों को हम ऐसे दश्त-ए-अना के मलंग क्या करते मिज़ाज पाया था घुल-मिल के सब में रहने का जुदा था सब से मगर अपना रंग क्या करते इक उम्र बा'द हुआ वक़्त मेहरबाँ तो 'नदीम' न आरज़ू थी न दिल में उमंग क्या करते