निकहत-ए-ज़ुल्फ़ को हम-रिश्ता-ए-जाँ कहता हूँ होश आता है तो ख़्वाब-ए-गुज़राँ कहता हूँ दर्द को दौलत-ए-साहब-नज़राँ कहता हूँ ग़म को सरमाया-ए-ईसा-नफ़साँ कहता हूँ कोई समझे कि न समझे मगर ऐ शम-ए-हरम मैं तुझे शोला-ए-रुख़्सार-ए-बुताँ कहता हूँ क़तरा दरिया है तो क्यूँ शोरिश-ए-दरिया-तलबी हर तमन्ना को मोहब्बत का ज़ियाँ कहता हूँ है वो आवाज़-ए-शिकस्त-ए-दिल-ए-गीती जिस को जरस-ए-क़ाफ़िला-ए-उम्र-ए-रवाँ कहता हूँ तोहमत-ए-सब्ज़ा-ए-बेगाना है संग-ए-बेदाद मैं तो काँटों को भी फूलों की ज़बाँ कहता हूँ कौन समझेगा मिरे हुस्न-ए-यक़ीं का आलम अर्श ओ तूबा को हिजाबात-ए-गुमाँ कहता हूँ बंदा-ए-ख़ाक-नशीनान-ए-मोहब्बत हूँ 'रविश' ख़ाक को मसनद-ए-आशुफ़्ता-सराँ कहता हूँ