निकहत-ओ-नूर का सैलाब था चारों जानिब मैं अकेला था मिरा ख़्वाब था चारों जानिब वस्ल का नश्शा रग-ओ-पै में समुंदर जैसा इक बदन सूरत-ए-महताब था चारों जानिब हम-रही ने तिरी खोले थे रुमूज़-ए-हस्ती आँख भर मंज़र-ए-शादाब था चारों जानिब था समाअ'त पे वही फ़िक़्रों का बोझल शब-ख़ूँ मैं भी था हल्क़ा-ए-अहबाब था चारों जानिब मैं कहाँ कासा-ए-उल्फ़त लिए फिरता 'असलम' ज़र-ए-इख़्लास ही कमयाब था चारों जानिब