नींद चुभने लगी है आँखों में कब तलक जागना है रातों में तुम अगर यूँही बात करते रहे बीत जाएगा वक़्त बातों में उँगलियाँ हो गईं फ़िगार अपनी छुप गया है गुलाब काँटों में शायद अपना पता भी मिल जाए झाँकता हूँ तिरी निगाहों में सब है तेरे सवाल में पिन्हाँ कुछ नहीं है मिरे जवाबों में जो नहीं मिल सका हक़ीक़त में ढूँढता फिर रहा हूँ ख़्वाबों में फ़ैसला तो तुम्हीं को करना है देखते क्या हो तुम गवाहों में मस्लहत-कोश हो गया 'मामून' घिर के तन्क़ीद करने वालों में