नींद जब ख़्वाब को पुकारती है रात अपना लिबास उतारती है मैं उसे कैसे जीत सकता हूँ वो मुझे अपना जिस्म हारती है मैं दिया हाथ पर उतारता हूँ और दिए पर वो लौ उतारती है मैं अकेला उसे पुकारता था अब हवा भी उसे पुकारती है वो मिरे साथ नीम-ख़्वाबी में रात की तरह दिन गुज़ारती है कुछ तो वो भीगती है बारिश में कुछ हवा भी उसे सँवारती है मोम-बत्ती सी उँगलियों के साथ वो मिरा भीगा कोट उतारती है मेरे होंटों की तिश्नगी 'क़ैसर' सुर्ख़ी लब से विप निखारती है