नींद से आँख वो मिल कर जागे कितने सोए हुए मंज़र जागे किस की ख़ातिर है परेशाँ तिरी ज़ुल्फ़ हम इसी फ़िक्र में शब भर जागे ज़र्ब-ए-तेशा की सदा थी कैसी आँख मलते हुए पत्थर जागे यूँ भी गुज़रे हैं शब-ओ-रोज़ कि हम नींद की फ़िक्र में अक्सर जागे तिश्नगी ने जो निचोड़ा दामन करवटें ले के समुंदर जागे सैकड़ों रंग हैं आँखों में मगर ज़ेहन में एक ही पैकर जागे ख़्वाब का जश्न मनाने के लिए लोग सुनते हैं कि घर घर जागे हम ने काग़ज़ पे लिखा नाम तिरा हर्फ़ ओ मा'नी के मुक़द्दर जागे उन को बेदार न कहिए 'शाएर' लोग जो ख़्वाब के अंदर जागे