नींदों का एक आलम-ए-असबाब और है शायद किसी की आँख में इक ख़्वाब और है तू मुझ को ताक़-ए-सीना में रक्खा हुआ न जान मैं जिस में जल रहा हूँ वो मेहराब और है यूँही नहीं ये ज़रबत-ए-तेशा की दस्तकें लगता है इक फ़सील पस-ए-बाब और है लहरा रहा है सत्ह पे महताब-ए-ग़ोता-ज़न हर-चंद एक शहर तह-ए-आब और है फूटी हैं जिस जगह मिरी आँखों की कोंपलें दिल से परे वो ख़ित्ता-ए-शादाब और है खोया हुआ हूँ नींद के पर्दे के उस तरफ़ लगता है एक ख़्वाब पस-ए-ख़्वाब और है किरनें तो इक निगाह-ए-सुबुक-रौ की लहर हैं दुम्बाला-दारी-ए-शब-ए-महताब और है 'ताबिश' ये तेरा अक्स नहीं मेरी आँख में इस झील में ये परतव-ए-ज़रताब और है