निसार यूँ तो हुआ तुझ पे नक़्द-ए-जाँ क्या क्या मगर रहा भी तिरा हुस्न सरगिराँ क्या क्या अलग अलग भी बहुत दिल-फ़रेब निकलेगी कहेंगे लोग अभी तेरी दास्ताँ क्या क्या हिसाब-ए-मय है हरीफ़ान-ए-बादा-पैमा से उठेगा अब के रग-ए-ताक से धुआँ क्या क्या नफ़्स की रौ में कोई पेच-ओ-ताब दरिया था गया है वादी-ए-जाँ से रवाँ-दवाँ क्या क्या वफ़ा की रात कोई इत्तिफ़ाक़ थी लेकिन पुकारते हैं मुसाफ़िर को साएबाँ क्या क्या हज़ार शमएँ जलाए हुए खड़ी है ख़िरद मगर फ़ज़ा में अँधेरा है दरमियाँ क्या क्या