निशाँ इल्म-ओ-अदब का अब भी है उजड़े दयारों में

निशाँ इल्म-ओ-अदब का अब भी है उजड़े दयारों में
कि 'सालिम' और 'मुज़्तर' हैं पुरानी यादगारों में

ग़रज़ 'कैफ़ी'-ओ-'शाइर' 'साइल'-ओ-'बेख़ुद' 'हसन' 'शैदा'
अलम हैं अर्सा-ए-इल्म-ओ-अदब के शहसवारों में

'नसीम' ओ 'बर्क़' ओ 'रौनक़' 'ग़ौस' ओ 'कैफ़ी' 'अज़्मी' ओ 'माहिर'
'शरर' और 'ज़ार'-ओ-'मो'जिज़' नामवर हैं सेहर-कारों में

'मुबीं' 'यकता' 'क़मर' 'अख़लाक़' 'शौक़' और 'शाकिर'-ओ-'ग़ाफ़िल'
'मुनीर'-ओ-'शम्स' सब हैं इल्म-ओ-फ़न के दोस्त-दारों में

'क़ुरैशी' 'वाहिदी' 'आसिफ़-बक़ाई' और 'हसन-ख़्वाजा'
हैं अहद-ए-हाज़िरा में सब अदब के पुख़्ता-कारों में

'सईद' ओ 'यास' ओ 'वहशी' 'अम्न' और 'महमूद' और 'अकबर'
नहीं गो देहली वाले देहलवी हैं इस्तिआरों में

'मुनव्वर' 'मुंतज़िर' 'बरकत' 'जरी' 'फ़ानी' 'अदीब' 'आशिक़'
'निहाल' और 'फ़िक्र' आते हैं इसी मद के शुमारों में

हमारी दर्स-गाहों में अदब के 'नाज़िम'-ओ-'नाशिर'
ख़ुदा रक्खे नज़र आते हैं अक्सर होनहारों में

'अली' ओ 'तालिब' ओ 'शैदा' ओ 'ताबाँ' 'साक़ी' ओ 'माइल'
हुआ ताराज गुलशन जब ख़िज़ाँ आई बहारों में

'फ़िराक़' और 'मीर' 'नासिर' और 'सिरी-राम' अब कहाँ 'साहिर'
कि थे इल्म-ओ-अदब के बेहतरीं ख़िदमत-गुज़ारों में


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