निश्तरों पर जिस्म सारा रख दिया ज़ख़्म पर लफ़्ज़ों का फाहा रख दिया रात की भीगी हुई दीवार पर मैं ने इक रौशन सितारा रख दिया रात तुम ने रौशनी के खेल में क्यूँ मिरे साए पे साया रख दिया मैं ने वो पतवार भी लौटा दिए बीच दरिया के किनारा रख दिया फूल थे इन में मगर ख़ुशबू न थी लफ़्ज़ को सूँघा उठाया रख दिया दुश्मनी अच्छी निकाली वक़्त ने बोझ इन काँधों पे कैसा रख दिया सब तमाशा खेल सारा उस का था नाम नाहक़ ही हमारा रख दिया