नुमायाँ मुन्तहा-ए-सई-ए-पैहम होती जाती है तबीअत बे-नियाज़-ए-हर-दो-आलम होती जाती है उठी जाती है दिल से हैबत-ए-आलाम-ए-रूहानी जराहत बहर-ए-क़ल्ब-ए-ज़ार मरहम होती जाती है किनारा कर रहा है रूह से हैजान-ए-सरताबी कि गर्दन जुस्तुजू के शौक़ में ख़म होती जाती है जुनूँ का छा रहा है ज़िंदगी पर इक धुँदलका सा ख़िरद की रौशनी सीने में मद्धम होती जाती है नसीम-ए-बे-नियाज़ी आ रही है बाम-ए-गर्दूं से उरूस-ए-मुद्दआ की ज़ुल्फ़ बरहम होती जाती है नुमायाँ हो चला है इक जहाँ चश्म-ए-तसव्वुर पर नज़र शायद हरीफ़-ए-साग़र-ए-जम होती जाती है गिरह यूँ खुल रही है हर नफ़स ज़ौक़-ए-तमाशा की कि हर अदना सी शय अब एक आलम होती जाती है फ़ज़ा में काँपती हैं धुँदली धुँदली नुक़रई शक्लें हर इक तख़ईल-ए-पाकीज़ा मुजस्सम होती जाती है न जाने सीना-ए-एहसास पर ये हात है किस का तबीअत बे-नियाज़-ए-शादी-ओ-ग़म होती जाती है समझ में आएँ क्या बारीकियाँ क़ानून-ए-क़ुदरत की इबादत कसरत-ए-मअ'नी से मुबहम होती जाती है ख़जिल था जिस की शोरिश से तलातुम बहर-ए-हस्ती का मिरे दिल में वो हलचल 'जोश' अब कम होती जाती है