नूर नूर ज़ेहनों में ख़ौफ़ के अँधेरे हैं रौशनी के पेड़ों पर रात के बसेरे हैं शहर शहर सन्नाटे यूँ सदा को घेरे हैं जिस तरह जज़ीरों के पानियों में डेरे हैं नींद कब मयस्सर है जागना मुक़द्दर है ज़ुल्फ़ ज़ुल्फ़ अँधियारे ख़म-ब-ख़म सवेरे हैं दिल अगर कलीसा है ग़म शबीह-ए-ईसा है फूल राहिबा बन कर रूह ने बिखेरे हैं इश्क़ क्या वफ़ा क्या है वक़्त क्या ख़ुदा क्या है इन लतीफ़ ख़ेमों के साए क्यूँ घनेरे हैं ज़ौक़-ए-आगही भी देख तौक़-ए-बे-कसी भी देख पाँव में हैं ज़ंजीरें हाथ में फरेरे हैं हू-ब-हू वही आवाज़ हू-ब-हू वही अंदाज़ तुझ को मैं छुपाऊँ क्या मुझ में रंग तेरे हैं तोड़ कर हद-ए-इम्काँ जाएगा कहाँ इरफ़ाँ राह में सितारों ने जाल क्यूँ बिखेरे हैं फ़हम लाख सुलझाए वहम लाख उलझाए हुस्न है हक़ाएक़ का क्या ख़याल मेरे हैं हम तो ठहरे दीवाने बस्तियों में वीराने अह्ल-ए-अक़्ल क्यूँ 'ख़ालिद' पागलों को घेरे हैं