पाबंद-ए-ग़म-ए-उल्फ़त ही रहे गो दर्द-ए-दहिंदाँ और सही अश्कों की रवानी थम न सकी आँखों के थे अरमाँ और सही आदाब-ए-चमन अंजाम तो दे गुल से न हटा तितली को सबा उल्फ़त की हया महफ़ूज़ रहे गो तुझ में हों तूफ़ाँ और सही हो सई-ए-करम ग़ैरों पे अगर अपनों पे मज़ाक़-ए-आम न हो हम राह में हैं ठोकर ही तो दे मंज़िल के हों शायाँ और सही इस दश्त-ए-वफ़ा में क़ैस भी है और शैख़ भी है मुश्ताक़-ए-मिलन जो वस्ल नहीं तो क्या ग़म है कुछ लम्हे इबाराँ और सही इक गुल जो गिरा बरनाई में बुलबुल को यही अफ़सोस रहा मशग़ूल रहा ग़म-ख़्वारी में हों फ़स्ल-ए-बहाराँ और सही अंदाज़-ए-सबा से वाक़िफ़ हूँ और रब्त-ए-बहर से भी बालिग़ रुख़ मोड़ के चलना जीना है ख़्वाह उस के हों पायाँ और सही