पड़ा न फ़र्क़ कोई पैरहन बदल के भी लहू लहू ही रहा जम के भी पिघल के भी बदन ने छोड़ दिया रूह ने रिहा न किया मैं क़ैद ही में रहा क़ैद से निकल के भी तहों का शोर भी अब सतह पर सुनाई दे वो जोश में है तो फिर जिस्म ओ जाँ से छलके भी नई रुतों में भी 'साबिर' उदासियाँ न गईं ख़मीदा-सर है हर इक शाख़ फूल फल के भी