पड़ी जो ज़र्ब-ए-तलातुम रग-ए-हसीन पे एक मैं आसमाँ में कई था गिरा ज़मीन पे एक कहीं क़रीब फटकता न था मिरा साया लिए उक़ाब वो चलता था आस्तीन पे एक सिमट सिमट गया हर वाक़िए का पैराहन न थी तिलिस्म की तह चश्म-ए-ख़ुर्दबीन पे एक अकेला ख़ुद था मुझे क्यों क़ुसूर-वार किया लिखा जो शो'ला-ए-जव्वाला से जबीन पे एक रुतों को कुछ न मिला एक ज़ाइक़े के सिवा नहीफ़ जिस्म ये भारी कभी था तीन पे एक लिबास तज के अजब बेबसी में थे अश्जार वो अज़दहा सा तड़पता रहा ज़मीन पे एक उसी के शोर के पीछे गरजते थे बादल अजीब बूँद थी टपकी थी घर के टीन पे एक