पहाड़ों की बुलंदी पर खड़ा हूँ ज़मीं वालों को छोटा लग रहा हूँ हर इक रस्ते पे ख़ुद को ढूँढता हूँ मैं अपने आप से बिछड़ा हुआ हूँ भरे शहरों में दिल डरने लगा था अब आ कर जंगलों में बस गया हूँ तू ही मरकज़ है मेरी ज़िंदगी का तिरे अतराफ़ मिस्ल-ए-दायरा हूँ उजाले जब से कतराने लगे हैं सियह-रातों का साथी बन गया हूँ मराहिम शक्ल कब का मर चुका है मुझे मत छेड़िए मैं दूसरा हूँ