पहन के पैरहन-ए-गुल सबा निकलती है सियाहियों के जिगर से ज़िया निकलती है कभी तो मुझ को भी एहसास-ए-आशनाई दे वो रौशनी जो कफ़-ए-गुल पे जा निकलती है मैं आँख बंद करूँ तो भी है वही मंज़र वो एक शक्ल हर इक रू पे आ निकलती है सराब-ए-फ़हम से आगे कहीं है बहर-ए-मुराद हर एक मंज़िल-ए-दिल नक़्श-ए-पा निकलती है कभी जो खुल के करूँ बात अपने आप से मैं हर एक आरज़ू ग़म-आश्ना निकलती है हुजूम-ए-अक्स में चेहरा तलाश कैसे करें हर एक शक्ल एहसास-ए-ख़ला निकलती है सरक रहे हैं अंधेरे हर एक बस्ती से अज़ाब-ए-अब्र से क़ुर्स-ए-वफ़ा निकलती है मिरे यक़ीं की घुटन और भी बढ़े 'नाहीद' हवा हो बंद तो मौज-ए-बला निकलती है