पहन के उजली सी पोशाक चला जाता है कौन ये शख़्स तह-ए-ख़ाक चला जाता है कहीं पीछे रहे जाते हैं सभी अर्ज़-ओ-समा आगे आगे मिरा इदराक चला जाता है अब तो वो मेरी मोहब्बत का भी मक़रूज़ नहीं जाने किस वास्ते नमनाक चला जाता है कौन जा सकता है वाँ तक प अगर हो महबूब वो सर-ए-अर्श भी बेबाक चला जाता है साँप ही साँप लिपटते हैं जहाँ पैरों से ऐसे रस्तों पे भला ख़ाक चला जाता है