पहली बरसात की घटा छाई आज खिड़की से कुछ हवा आई अपनी कुटिया में रोज़-ए-मातम है उन के कोठे पे रोज़-ए-शहनाई लू के मौसम पे फ़त्ह पाएगी इक न इक दिन ज़रूर पुर्वाई उस की पाज़ेब की सदा सुन कर गुनगुनाती हुई सबा आई इक तरफ़ ख़ाक-ओ-ख़ून का आलम इक तरफ़ ऐश में है दाराई शब में जब उस को ख़्वाब में देखा बढ़ गई सुब्ह मेरी बीनाई