पहना हो बर में जामा मिरा गुल-एज़ार सुर्ख़ आई है क्या मज़े से चमन में बहार सुर्ख़ जब से गिरा है ख़ून शहीदाँ का ख़ाक पर तब से हुआ है जोश-ए-गुल-ए-लाला-ज़ार सुर्ख़ मैं ख़्वाब में हुआ हूँ हम-आग़ोश-ए-गुल-बदन क्या देखता हूँ सुब्ह को हैगा कनार सुर्ख़ याँ लग बहे है ख़ून मिरे अश्क-ए-चश्म से बहते हैं अब के साल में सब जूएबार सुर्ख़ मक़्तूल जो कि दस्त-ए-हिना-बंद से हुआ रखता बजा है क़ब्र पे संग-ए-मज़ार सुर्ख़ गुल का ख़जिल हो रंग पसीने में बह गया गुल-रू के अक्स-ए-रुख़ से हैं अब आबशार सुर्ख़ ख़ून-ए-जिगर का हाल 'फ़तव्वत' मैं जब लिखा मिस्तर का हो गया है हर इक तार तार सुर्ख़