पहनाए-बर-ओ-बहर के महशर से निकल कर देखूँ कभी मौजूद ओ मयस्सर से निकल कर आए कोई तूफ़ान गुज़र जाए कोई सैल इक शोला-ए-बे-ताब हूँ पत्थर से निकल कर आँखों में दमक उट्ठी है तस्वीर-ए-दर-ओ-बाम ये कौन गया मेरे बराबर से निकल कर ता-देर रहा ज़ाइक़ा-ए-मर्ग लबों पर इक नींद के टूटे हुए मंज़र से निकल कर हर रंग में इसबात-ए-सफ़र चाहिए 'सरवत' मिट्टी पे धरो पाँव समुंदर से निकल कर