पहुँचा है आज क़ैस का याँ सिलसिला मुझे जंगल की रास क्यूँ न हो आब-ओ-हवा मुझे आना अगर तिरा नहीं होता है मेरे घर दौलत-सरा में अपने ही इक दिन बुला मुझे वो होवे और मैं हूँ और इक कुंज-ए-आफ़ियत इस से ज़ियादा चाहिए फिर और क्या मुझे पैदा किया है जब से कि मैं रब्त-ए-इश्क़ से बेगाना जानता है हर एक आश्ना मुझे काफ़िर बुतों की राह न जा आ ख़ुदा को मान पीर-ए-ख़िरद ने गरचे कहा बार-हा मुझे पर क्या करूँ कि दिल ही नहीं इख़्तियार में उस ख़ानुमा-ख़राब ने आजिज़ किया मुझे पहले ही अपने दिल को न देना था उस के हाथ 'ईमान' अब तो कोई पड़ी है वफ़ा मुझे