पहुँचा मैं कू-ए-यार में जब सर लिए हुए नाज़ुक बदन निकल पड़े पत्थर लिए हुए ऐ दोस्त ज़िंदगी की मुझे बद-दुआ न दे मैं ख़ाक हो चुका हूँ मुक़द्दर लिए हुए चलती है रौंदती हुए पल पल मिरा वजूद हर साँस ख़्वाहिशात का लश्कर लिए हुए परछाइयों के देस में बे-अस्ल कुछ नहीं मंज़र भी है यहाँ पस-मंज़र लिए हुए गुज़री है रौंदती हुई लम्हों का क़ाफ़िला 'तारिक़' की मुश्त-ए-ख़ाक है महशर लिए हुए