पाई है वो मिलकियत जिस में मिला कुछ भी नहीं सर पे सारा आसमाँ और ज़ेर-ए-पा कुछ भी नहीं अस्ल अपना खोजता फिरता है आदम उम्र भर ज़िंदगी ख़ुद के तआ'क़ुब के सिवा कुछ भी नहीं अब पलट कर पूछते हो राह में क्या क्या हुआ हम सियह-बख़्तों को क्या होगा भला कुछ भी नहीं आशिक़ी पर क़ौल करते आ रहे हैं चंद लोग लोग वो जिन के लिए मेहर-ओ-वफ़ा कुछ भी नहीं रोज़ कितने ही सितारे टिमटिमा कर बुझ गए यूँ क़ज़ा का ग़म न कर ये सानेहा कुछ भी नहीं हासिल-ए-उल्फ़त जो पूछो तो हैं मेरे दो जवाब एक तो सारी ख़ुदाई दूसरा कुछ भी नहीं फिर हवा का रुख़ पलटने को है उन की ख़ैर हो जिन चराग़ों से हमारा राब्ता कुछ भी नहीं किस क़दर दुश्वार था गढ़ना कोई दुनिया जिधर इब्तिदा कुछ भी नहीं और इंतिहा कुछ भी नहीं एक साहब 'मीर' जन्मे तिस पे इक ग़ालिब हुए फिर ग़ज़ल-गोई में करने को नया कुछ भी नहीं