पाई न कोई मंज़िल पहुँचीं न कहीं राहें भटका के रहीं मुझ को आवारा गुज़रगाहें आलाम-ए-ज़माना से छूटें तो तुझे चाहें मसरूफ़-ए-मशक़्क़त हैं हसरत से भरी बाँहें सहरा ही से गुज़री थीं खोई गईं जो राहें बतलाएँगे ये चश्मे ये बन ये चरागाहें शमशीर की ज़द पर हैं कुछ और हमीं जैसे हंगाम-ए-तक़ाज़ा क्या ऐ दिल वो जिसे चाहें क्या रूप बदलते हैं तस्वीर में ढलते हैं आँखों में रुके आँसू सीने में दबी आहें अब कौन कहे तारा टूटा तो कहाँ पहुँचा आज़ाद की हर दुनिया बर्बाद की सौ राहें अब नाम ग़म-ए-दिल का तस्वीर ओ क़लम तक है तूफ़ाँ ने सफ़ीनों में ढूँडी हैं पनह-गाहें तश्हीर-ए-जुनूँ कहिए या ज़ौक़-ए-सुख़न 'हक़्क़ी' अर्ज़ां हैं मिरे आँसू रुस्वा हैं मिरी आहें